भविष्यपुराण में कलि (कलिदानव) और श्रीकृष्ण के संवाद का वे श्लोक प्रचलित हैं, जिनमें श्रीकृष्ण कलिदानव की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान देते हैं कि कलियुग में संस्कृत की बजाय प्राकृत भाषाओं का प्रचार-प्रसार होगा और संस्कृत का प्रभाव घटेगा। परंतु, यह प्रसंग भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व, तृतीय खंड के तीसरे अध्याय (कुछ संस्करणों में) के अंतर्गत मिलता है और इसकी शाब्दिक पुष्टि करना कठिन है

इस कथानक की सत्यता पर निश्चित रूप से संदेह किया जाता है, क्योंकि:
• भविष्यपुराण के जितने भी मूल संस्कृत संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें कहीं भी सीधे ये श्लोक प्रमाणित रूप में नहीं मिलते, जिसमें श्रीकृष्ण कलिदानव को संस्कृत के विलोपन और प्राकृत भाषाओं की प्रगति का वरदान दें। अधिकांश विवरण मौखिक परंपरा, द्वितीयक पुस्तकों या आधुनिक व्याख्याओं पर आधारित दिखते हैं।

• भविष्यपुराण का मूल पाठ ऐतिहासिक रूप से बहुत बार संपादित, परिवर्तित व परिवर्धित हुआ है — विभिन्न कालों में इसमें वृद्धि और परिवर्तन हुए, जिससे उसका सटीक मूल स्वरूप विवादित है। कई विद्वान इसकी स्वीकृति और प्रामाणिकता को लेकर भी शंका करते हैं।

• श्रीकृष्ण धर्म के संवर्धन एवं अधर्म के नियंत्रण के लिए प्रसिद्ध हैं; उनके द्वारा कलि के पापों का बढ़ावा देना अथवा ज्ञानराज्य (संस्कृत/वेद) के विलोपन का समर्थन असम्भाव्य प्रतीत होता है। ऐसा निर्णय सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों के विपरीत भी है।

• प्रभासाक्षी शास्त्रों (जैसे श्रीमद्भागवत, महाभारत) में कभी भी भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा कलि को पापाचार बढ़ाने अथवा ज्ञान को घटाने का वरदान नहीं मिलता, बल्कि वे सदैव धर्म-संस्थापन की ही बात करते हैं।

निष्कर्ष:
ऐसे कथानक की ऐतिहासिक, दार्शनिक और शास्त्रीय प्रामाणिकता संदिग्ध है। यदि भविष्यपुराण में ऐसा उल्लेखित पाया भी जाए तो वह संभवतः कालांतर में जोड़ी गई कथा, लोक-कथाएँ या भाषिक-राजनीतिक प्रभाव का परिणाम है, न कि सनातन धर्म और श्रीकृष्ण की वास्तविक शिक्षाओं का प्रतिबिंब

भविष्यपुराण की प्रकृति

• भविष्य पुराण (18 महापुराणों में से एक) को परंपरा में वेदव्यास रचित कहा गया है।
• परंतु इसका स्वरूप अन्य पुराणों से अलग है:
• इसमें कई भविष्यवाणियाँ हैं — जिनमें मौर्य, गुप्त, मुस्लिम, अंग्रेज़ शासन तक का वर्णन मिलता है।
• विद्वान मानते हैं कि इसके कई अंश बाद में जोड़े गए।
• खुद आचार्य और पंडितों ने लिखा है कि भविष्य पुराण में सबसे अधिक “संशोधन और मिलावट” हुई है, क्योंकि इसे “भविष्य बताने वाला ग्रंथ” मानकर बार-बार शासकों और पंथों ने अपने अनुसार पंक्तियाँ डलवाईं।

इसलिए, यह कहना कि कृष्ण ने जानबूझकर कलिदानव को वरदान दिया → तार्किक और शास्त्रीय दृष्टि से मेल नहीं खाता।

संस्कृत-लोप का रहस्य :

• यह विचार (संस्कृत का लोप होना) संभवतः बाद के समय का “जोड़” है।

• तर्क:

• संस्कृत → वेद और मंत्रों की भाषा है।

• स्वयं भगवान कभी “वेद-लोप” का वरदान नहीं दे सकते।

• परंतु काल का स्वभाव यह है कि धीरे-धीरे मनुष्य अपनी ही संस्कृति भूल जाएगा।

• यानी सही अर्थ यह है कि कलियुग में स्वभावतः संस्कृत की उपेक्षा होगी → इसे कृष्ण का वरदान कहकर लिख देना शायद “बाद के लेखकों की मिलावट” है।

क्यों हुई मिलावट?

• भविष्यपुराण सबसे आसान ग्रंथ था “पॉलिटिकल-एडिटिंग” के लिए:

• शासकों ने इसमें अपने-अपने नाम और भविष्यवाणियाँ डलवाईं।

• विदेशी प्रभाव में “संस्कृत का लोप” या “अब्राहमिक प्रभुत्व” जैसी बातें डाली गईं।

• यही कारण है कि परंपरागत आचार्य कहते हैं → भविष्यपुराण को हमेशा सावधानी से पढ़ना चाहिए।

• तो क्या भविष्यपुराण में मिलावट हुई है ??

यह शास्त्रीय विद्वानों और परंपरागत आचार्यों की मान्यता भी है।

• श्रीकृष्ण का कलिदानव को वरदान देना या संस्कृत-लोप का आशीर्वाद देना — यह असली श्रीकृष्ण की वाणी नहीं हो सकती।

• सही समझ यह है:

• कृष्ण ने कलियुग के सत्य धर्म (भक्ति, नामस्मरण, गीता ज्ञान) को ही आधार बताया।

• “संस्कृत लोप” और “कलिदानव” वाले प्रसंग शायद बाद की कालखंडीय एडिटिंग हैं।

श्रीकृष्ण का असल संदेश : कलियुग-धर्म

गीता का आधार (महाभारत का हृदय)

• “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।”
कलियुग में सैकड़ों धर्म और पंथ भ्रमित करेंगे, पर सच्चा मार्ग है — केवल भगवान का शरणागति भाव।

महाभारत युद्ध में दो पक्षों में युद्ध अवश्य था लेकिन ये दोनों ही पक्ष सनातनी थे । इस विश्वयुद्ध में दोनों ही हर हर महादेव की उद्घोष कर रहे थे । यानि महाभारत युद्ध के बाद कलियुग के प्रारंभ होने के पश्चात , कालांतर में सनातन से अलग और भ्रमित होकर अलग अलग पंथ, मज़हब, रीलिजन और मान्यताएं अस्तित्व में आई । ( इसके पीछे ब्रह्रा के पाँचवें सिर का मैं ही सर्वोच्च भाव और वासना रुपी विकृति को असुर गुरु शुक्राचार्य ने अपनी माया की पिरामिड प्रयोगशाला में विस्तार दिया )
इसलिये आज कलियुग में सनातन के अलावा कई ऐसे पंथ अस्तित्व में हैं जिनके बीच मैं ही सर्वोच्च ( अहं ब्रहास्मि ) का भाव मारकाट और अत्याचार का कारण बन गई है । अब्राहमिक पंथों में ब्रह्रा के इसी पांचवे सिर के अहंकार और वासना आधारित संबंधों की झलक साफ देखी जा सकती है ।

भागवत पुराण (स्कंध 12, कलियुग वर्णन)

भागवत पुराण स्पष्ट कहता है कि कलियुग में चारों युगधर्मों (तप, यज्ञ, दान, सत्य) लुप्त हो जाएँगे।

परंतु एक धर्म शेष रहेगा:
• “कलौ तद् हरीकिर्तनात्।”

कलियुग में मोक्ष केवल भगवान के नाम-स्मरण और कीर्तन से ही संभव है।

कलियुग में धर्म का साधन

कृष्ण ने कहा और शुकदेव ने समझाया:

• जप → हरि नाम (राम, कृष्ण, शिव, देवी, नारायण — किसी भी रूप में ईश्वर का नाम)

• भक्ति → भाव से की गयी पूजा, आरती, भजन

• सत्संग → साधुओं और सत्यान्वेषियों के साथ रहना

• दया → जीवों पर करुणा, सेवा

ये ही “कलियुग की तपस्या” हैं।

संस्कृत का प्रश्न

• कृष्ण या वेदांत कहीं नहीं कहते कि संस्कृत लुप्त होनी चाहिए।

• बल्कि, “वेदो नित्यं अध्ययनियम्यः” → वेद और संस्कृत मंत्र का उच्चारण ही साधना है।

• हाँ, भागवत यह कहता है कि कलियुग में लोग संस्कृत और वेद छोड़ देंगे, परन्तु जो साधक चाहें, उनके लिए यह मार्ग सदा खुला रहेगा।

कलियुग का वरदान (सकारात्मक पक्ष)

कलियुग को पूरी तरह नकारात्मक नहीं बताया गया है।
भागवत (12.3.51) कहता है:

• “कलेर्दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥”

कलियुग दोषों का सागर है, पर इसका एक महान गुण है — केवल नाम-स्मरण से मोक्ष संभव है।

श्रीकृष्ण का वास्तविक वरदान

• “जो कोई भी मेरा नाम, मेरी गाथा, और गीता का स्मरण करेगा — वह कलियुग के तमाम दोषों से बचा रहेगा।”

• इसका अर्थ है → कलियुग में सबसे सरल और सीधा साधन है हरि-नाम और गीता-ज्ञान।

सारांश

• भविष्यपुराण में जो “कलिदानव” और “संस्कृत-लोप” जैसी बातें हैं → संभवतः बाद की मिलावट हैं।

• असली श्रीकृष्ण ने केवल यही कहा:

• शरणागति, भक्ति, हरि-नाम, और गीता का स्मरण ही कलियुग धर्म है।

• किसी भी युग में वेद और संस्कृत का नाश नहीं हो सकता, केवल लोगों की उपेक्षा हो सकती है।

Disclaimer : लेख में विचार मौलिक हैं और ये किसी की भी मज़हबी भावना को ठेस पहुँचाने के लिये नहीं है ।

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