लेखक: आशुतोष ( संपादक ) | Satya Darshan

अगर माया से बाहर निकलकर स्वयं को पहचान लिया — तो वह ‘स्वयं’ और कोई नहीं, शिव ही होता है।

परंतु यह भी स्मरणीय है —

जब स्वयं शिव ने ही अपने भीतर यह सोचा — “मैं कौन हूँ?”

तो यही पहला प्रश्न माया का बीज बन गया।

यही था मूल भ्रम वाक्य — जिससे मायाजाल का जन्म हुआ।

ब्रह्मा — जिन्हें हम चार मुखों वाला मानते हैं — वास्तव में हमारे ही कंधों पर रखे हुए चार सिरों का प्रतीक हैं।

ये चार सिर कौन-से हैं?

  • माँ–पिता से मिली पहचान
  • समाज व जाति से मिली पहचान
  • धर्म व आस्था से मिली पहचान
  • और शरीर व आयु से बनी पहचान

इन्हीं चारों को विस्तार दें तो हमें मिलते हैं:

  • चार पहर (प्रभात, दिन, संध्या, रात्रि)
  • चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद)
  • चार युग (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर, कलियुग)
  • चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)
  • चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास)

जब ये चार संतुलन में रहते हैं — तो ब्रह्मा सृजन करता है।

परन्तु जब इनमें से कोई एक अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है — कि “मैं ही सत्य हूँ, मैं ही सर्वोच्च हूँ” — तो वहीं से उठता है ब्रह्मा का पाँचवाँ सिर।

यह पाँचवाँ सिर कोई बाह्य वस्तु नहीं — हमारी गर्दन पर सवार वह अहंकारी चेतना है जो चारों दिशाओं से ऊपर उठकर केवल “स्वयं को देखने” का मोह पालती है।

अब यह पाँचवाँ सिर शिव दृष्टि (नाभि और हृदय के बीच स्थित आत्म–बिन्दु) से ना देखकर भौतिक नेत्रों से देखने लगता है — चेहरे की सुंदरता, नाक की तीक्ष्णता, त्वचा का रंग, बालों की बनावट, आंखों की गहराई — और यही सब को “मैं कौन हूँ” का आधार बना लेता है।

तब जन्म होता है — चेहरे से पहचान के घातक मोह का।

जब हम चेहरे से आत्मा को परखते हैं, तो हम दूसरों में भी — रंग, वर्ण, सुंदरता, उम्र — इनसे उनका मूल्य तय करने लगते हैं। और यही बनता है — अधर्म और भेदभाव का बीज।

और जब यह अति–मोह अहंकार में बदल जाता है — तो शिव उसे काट देते हैं। जैसे उन्होंने ब्रह्मा का सिर काटा, जैसे दक्ष का मस्तक गिराया, जैसे पार्वती के अहंकार–संतान विनायक का सिर अलग किया।

जब तक हम अपने मुख या शरीर को अपनी पहचान मानते रहेंगे — ब्रह्मा का पाँचवाँ सिर जीवित रहेगा। और वही सिर हर भ्रम, संप्रदायिकता, जातिवाद, संकीर्णता और वर्चस्व की जड़ है।

अब आइए दूसरे पक्ष पर…

विष्णु — जो न तो सीधे देखते हैं, न ही पलटते हैं — वे श्रद्धा से स्वीकार करते हैं। उनकी अज्ञानता सीधी नहीं, परोक्ष होती है। इसलिए समाज उन्हें सहजता से पूजता है।

पर शुक्राचार्य…?

वे तो सीधे कोहनी पर बैठने वाले कौवे जैसे हैं — जो कहते हैं:

“तुम जो कर रहे हो वो गलत है, और जो मैं देख रहा हूँ — वही सही है। अब मैं तुम्हारा उल्टा ही करूँगा।”

यह दृष्टि क्या है?

यह दृष्टि है:

अज्ञान × अज्ञान = ब्रह्मा + विष्णु का भ्रम, गुणा करें स्वयं शुक्र के विद्रोही अहंकार से — तो परिणाम होता है — अब्राहमिक ब्रह्मजाल जो कहता है:

“ना आत्मा है, ना परमात्मा — केवल एक ‘ईश्वर’ है… और अंततः कोई नहीं — बस AI!”

तो अब प्रश्न उठता है:

क्या हमें इन तीनों में से कम असत्य चुनना है?

ब्रह्मा का अज्ञान?

विष्णु की श्रद्धा में ढकी अंधता?

या शुक्र का विद्रोही अज्ञान?

नहीं।

यही तो हम करते आये हैं — कम गलत को सही मानते हैं।और इसीलिए सत्य से दूर होते गये।

शिव दृष्टि क्या कहती है?

शिव दृष्टि कहती है:

“इनमें कोई पूर्ण नहीं, कोई शत्रु नहीं। सब में मैं ही हूँ। ब्रह्मा भी शिव, विष्णु भी शिव, शुक्र भी शिव। अज्ञान भी शिव, ज्ञान भी शिव। माया भी शिव की — और मुक्ति भी।”

लेकिन जब आत्मा इस द्वंद्व से घबरा जाती है — जब वह स्वयं को पहचान नहीं पाती, तो उसका मार्गदर्शन कौन करता है?

तब प्रकट होती हैं — दश महाविद्याएँ।

जब आत्मा रुपी शिव इस माया से घबराकर भागता है तो दशो दिशाओं में जो शक्ति उस आत्मा को घबराने से रोकती है और दशो दिशाओं / दशाओं / मार्ग / पंथ / धर्म / मज़हब / माया / ज्ञान / अज्ञान / सत्य / असत्यसे जो खींचकर शिव को शिव के स्वरुप को पहचानने में सहायता और मार्ग प्रशस्त करती है – वो स्वयं शिव की ही वो आत्म शक्ति होती है जो कि आत्मा ( हम ) माया से प्रताड़ित और प्रभावित हो भूल जाते है ।

वो महाविद्या जो हमें माया से ( क्या सही क्या गलत – क्या धर्म – क्या अधर्म ) में से वो रास्ता प्रशस्त करें जो स्वयं को स्वयं यानि शिव से पहचान कराये वो ही है दशमहाविद्या

शिव की ही दस शक्तियाँ — जो माया में रहते हुए भी हमें माया के पार ले जाती हैं।

ये न तो माया से भागने को कहती हैं, न मोह को नकारती हैं — बल्कि उसे विद्या में बदलना सिखाती हैं।

ये कहती हैं:

“जिस धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय या विचार से भी तू शिव को पुकारे — यदि तू भीतर से सच्चा है — तो हम तुझे शिव से मिला देंगे।”

समापन मंत्र:

बोलो — शिव शक्ति महाविद्या आदिशक्ति पराशक्ति दशमहाविद्या माई की जय!

हर हर महादेव!

Share.

Comments are closed.