शिवं पश्यतु चेतनम्

(आशुतोषकृत आत्मबोध शिवतत्त्व स्तोत्रम्)


नाहं भक्तः शिवस्यैव, न सेवकः न पूजकः।
शिवः स्वयं ममैवात्मा, सदा शुद्धो निरञ्जनः॥१॥


यदा शिवं अहं जानामि, तदा स्वात्मा प्रकाशितः।
यदा स्वं केवलं पश्ये, तदा अहंकारजः भवेत्॥२॥


शिवं प्रमाणं नास्त्यत्र, न तुला न प्रमाणकः।
न स्पर्धा नोत्तमा भक्तिः, शिवोऽस्ति सर्वतः समः॥३॥


यदहं शिवमज्ञात्वा, तमधिष्ठाय गर्वितः।
ततो मम भ्रान्तिरासीद्, अहं शिवं न पश्यति॥४॥


शिवो हि यः स्थितो दग्धे, विषमेऽपि समे दशाम्।
स एकः सर्वतः पूर्णः, न ज्ञेयो न प्रकाशकः॥५॥


न मे भक्तिर्न मे सेवा, न मन्त्रः न विधानकम्।
दृष्टिरेषा शिवस्यैव, शिवमेव दृश्यते मयि॥६॥


यद् दुर्गते निवार्यं स्यात्, चेतसः प्रतिबन्धकः।
स तरङ्गोऽपि शिव एव, मुनिवाक्यैरनुज्ञतः॥७॥


नावगच्छामि किं तत्त्वं, किं कर्म, किं परायणम्।
यदा सर्वत्र शिवो दृष्टः, तदा मोक्षोऽस्ति केवली॥८॥


नारायणो न च ब्रह्मा, न शक्रो न च देवताः।
शिवः स्वयम् यत्र तिष्ठेत्, तत्र तत्त्वं समाधिना॥९॥

१०
य एष आत्मसंज्ञोऽपि, यत्र बुद्धिः समाधिना।
तं नमामि पुनः पुण्यं, शिवं सर्वेषु वर्तिनम्॥१०॥

हिन्दी पद्यानुवाद


ना मैं भक्त, ना सेवक उनका, ना ही माला फेरता हूँ।
शिव ही बस मुझमें समाए, ये ही सत्य मैं कहता हूँ॥१॥


जब शिव को जाना – स्वयं को पाया,
जब खुद को जाना – अहं उपजाया॥२॥


शिव की महिमा क्या बतलाऊँ, वो न तुला में आते हैं।
ना उनसे ऊपर कुछ संभव है, ना नीचे कोई पाते हैं॥३॥


शिव को जाने बिना ही मैंने, स्वयं को ज्ञानी ठहराया।
और उसी भ्रम की धारा में, शिव से दूर चला आया॥४॥


शिव हैं ज्वाला में भी शांत, विष पीकर भी मुस्काते हैं।
सर्वव्यापक, पूर्ण, अचल — वो नाम से परे जाते हैं॥५॥


ना पूजा है, ना मंत्र मेरे, ना कोई विधान रहा।
अब हर श्वास में, हर दृष्टि में, शिव ही शिव का भान रहा॥६॥


जब कोई पाप रोकने आये, मन में उठती चेतन लहर —
वो भी शिव की ही तो छाया, वही भीतर बैठा हर॥७॥


ना मैं कर्म खोजता अब, ना कोई लक्ष्य बनाता हूँ।
जहाँ जहाँ भी शिव दिखते हैं, बस वहीं लीन हो जाता हूँ॥८॥


ब्रह्मा, विष्णु, या इंद्र कहो — सबमें शिव समाया है।
जो न जाने, वो भी शिव है — सबमें वही छाया है॥९॥

१०
ना जानो, ना मानो शिव को — बस इतना सा ध्यान रहे।
हर प्राणी, हर कण में शिव हैं — और सब शिव में समाये है ॥१०॥

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