जब पूरी दुनिया 1960s में सेमीकंडक्टर क्रांति की ओर दौड़ रही थी, भारत भी शुरुआती लाइन में था — लेकिन फिर राजनीति, नीतिगत ढिलाई और दूरदर्शिता की कमी ने हमें रेस से बाहर कर दिया। नतीजा: अरबों डॉलर का नुकसान, लाखों नौकरियों का घाटा, और ग्लोबल टेक मैप से गायब भारत।

मुख्य रिपोर्ट

वो सरकारें जिन्होंने मौका गंवाया

  • 1960s–1970s: CEERI, BEL, SCL जैसी संस्थाएँ बनीं, लेकिन रणनीतिक दृष्टि और निवेश की कमी से Fairchild Semiconductor जैसी कंपनियाँ भारत छोड़ मलेशिया चली गईं।
  • 1980s: राजीव गांधी ने Electronics Policy (1982) और SCL बनाई, पर योजनाएँ आधी-अधूरी रहीं। 1989 की SCL आग के बाद पुनर्निर्माण में इच्छाशक्ति और संसाधनों की भारी कमी रही।
  • 1990s–2000s: उदारीकरण के बाद भी विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए सब्सिडी, बिजली, और इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं दिया गया। नौकरशाही ने काम और धीमा कर दिया।
  • 2010s: घरेलू मांग बढ़ी, लेकिन हम पूरी तरह चीन, ताइवान और कोरिया पर निर्भर हो गए।

जिन दूरदर्शियों को नज़रअंदाज़ किया गया

  • प्रो. ए.आर. वासुदेव मूर्ति (IISc): BEL के साथ Metkem Silicon Ltd. की शुरुआत की, लेकिन नीति व संसाधनों की कमी से प्रोजेक्ट ठप।
  • IIT व CEERI, पिलानी के वैज्ञानिक: शुरुआती ग्लोबल-लेवल रिसर्च की, मगर फंडिंग और सरकारी समर्थन न मिलने से रफ्तार थम गई।
  • कई उद्योगपति व नीतिज्ञ: समय-समय पर फैब हब बनाने के प्रस्ताव दिए, लेकिन “तकनीकी क्षेत्र की तुच्छता” और “आर्थिक प्राथमिकता में बदलाव” के कारण ठंडे बस्ते में डाले गए।

कितना नुकसान हुआ

  • तकनीकी: 1987 में 2 पीढ़ी पीछे, आज 12 पीढ़ी पीछे।
  • आर्थिक: हर साल अरबों डॉलर का आयात बिल, लाखों नौकरियों का नुकसान।
  • रणनीतिक: रक्षा, ऑटोमोबाइल, स्मार्टफोन आदि में विदेशी निर्भरता बढ़ी, राष्ट्रीय सुरक्षा पर असर।
  • ग्लोबल स्टेटस: अगर तब निवेश होता, तो आज ताइवान/कोरिया की तरह सेमीकंडक्टर निर्यातक होते।

निष्कर्ष

“अगर 60s–80s में भारत ने दूरदर्शिता दिखाई होती, तो आज चिप्स हम बनाते… दुनिया खरीदती।”

publicfirstnews.com

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