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संस्कृत से आरती तक: कैसे टूटी सनातन की मूल धारा?

प्रस्तावना

सनातन परंपरा का मूल है—वेद मंत्र और संस्कृत स्तुति। ऋचाओं का उच्चारण केवल देव-अर्चना नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय ऊर्जा को संतुलित करने और “माया-बल” को दूर करने का साधन है। यही कारण है कि संस्कृत को ज्ञान की भाषा कहा गया।

लेकिन आज मंदिरों में जहाँ पहले वैदिक ऋचाएँ और संस्कृत स्तुतियाँ गूंजती थीं, वहाँ अब अधिकतर हिंदी या क्षेत्रीय आरतियाँ, और कई बार फिल्मी धुनों पर गाए जाने वाले भजन सुनाई देते हैं। प्रश्न उठता है—क्या यह परिवर्तन मात्र शैलीगत है, या इसके पीछे कोई सुनियोजित ऐतिहासिक क्रम है, जिसने धीरे-धीरे हमारी मूल शक्ति को कमजोर कर दिया?

आरती की परंपरा: कब और कैसे?

  • आरती या नीराजन की क्रिया प्राचीन है। वेदों और आगम ग्रंथों में दीप से देवता की आराधना का उल्लेख मिलता है।
  • लेकिन आरती को गीत रूप में सामूहिक गान—जैसे “ॐ जय जगदीश हरे”—19वीं सदी के बाद प्रमुख हुआ। इसे अक्सर पं. शार्दाराम फिल्लौरी (1830s–1880s) से जोड़ा जाता है।
  • भक्ति आंदोलन ने इसे गति दी: लोक-भाषा में गाए गए पद-भजन, कीर्तन और आरतियाँ—जिससे साधारण जन भी जुड़ सके।

यानी, अनुष्ठानिक आरती प्राचीन है, पर हिंदी-भाषाई सामूहिक आरती का रूप अपेक्षाकृत नया है।

संस्कृत क्यों दूर की गई?

प्राकृत और स्थानीय भाषाओं का प्रयोग

कलियुग की शुरुआत से ही संस्कृत की जगह प्राकृत और देशज बोलियों का विस्तार हुआ। यह एक सांस्कृतिक परिवर्तन भी था और कहीं न कहीं “ज्ञान-भाषा” को जनता से अलग करने की शुरुआत भी।

इस्लामी दौर: फ़ारसी का प्रभुत्व

  • दिल्ली सल्तनत और मुग़लों ने फ़ारसी को राजभाषा बनाया।
  • प्रशासन, शिक्षा और दरबार का संरक्षण संस्कृत से हटकर फ़ारसी विद्वानों को मिलने लगा।
  • संस्कृत अपनी जगह रही, पर राजकीय संरक्षकता खो बैठी।

औपनिवेशिक नीतियाँ: निर्णायक प्रहार

  • 1835: मैकॉले का मिनट—अंग्रेज़ी शिक्षा को बढ़ावा, संस्कृत-फ़ारसी को अनुपयोगी बताकर सरकारी अनुदान रोकना।
  • 1837: प्रशासनिक कार्यों में फ़ारसी हटाकर अंग्रेज़ी और कुछ स्थानीय भाषाएँ लागू।
  • 1854: वुड्स डिस्पैच—आधुनिक शिक्षा ढाँचा; सतह पर स्थानीय भाषा की बात, पर वास्तविक अवसर अंग्रेज़ी से जुड़े।
  • 1882: हंटर कमीशन—स्थानीय स्कूलों की दशा बताई, पर सुधार के बजाय अंग्रेज़ी शिक्षित वर्ग को बढ़ावा।

परिणाम:

गुरुकुल और टोल (टोले) जो दान और स्थानीय संसाधनों पर चलते थे, धीरे-धीरे टूट गए। संस्कृत शिक्षा “रोज़गार और प्रतिष्ठा” से कट गई।

आरती गान और धर्मांतरण का प्रश्न

क्या संस्कृत में स्तुति की जगह आरतियाँ धर्मांतरण का कारण बनीं?

  • तथ्य यह कहते हैं कि धर्मांतरण के मुख्य कारण सामाजिक असमानता, मिशनरी शिक्षा और औपनिवेशिक संस्थान थे।
  • लेकिन यह भी सच है कि संस्कृत स्तुति और वेद पाठ की जगह लोक-भाषा और फिल्मी-धुन ने ले ली, जिससे मूल ऊर्जात्मक साधना कमजोर हुई।
  • हिन्दुओं को उनके ज्ञान से दूर कर दिया और उसकी जगह ले ली कर्मकांडों ने
  • लोक-भाषा ने जन-सहभागिता बढ़ाई, पर संस्कृत से दूरी ने उस “ध्वनि-शक्ति” को कम कर दिया, जिसे ऋषि-मुनि साधनाओं से जोड़ते थे।

वर्तमान स्थिति: वेद-पाठ समाप्त नहीं, पर सीमित

  • आज भी वेद-पाठ की परंपरा जीवित है; यूनेस्को ने 2008 में इसे “मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर” घोषित किया।
  • परंतु वास्तविकता यह है कि संस्कृत पढ़ने वाले वेदपाठी बहुत कम हो गए हैं, और मंदिरों में अधिकतर पुजारी हिंदी या क्षेत्रीय गीत गाकर पूजा संपन्न करते हैं।

मूल प्रश्न: ब्राह्मण बनाम आचार्य

आज की स्थिति यह है कि:

  • जाति से ब्राह्मण बने रह गए हैं, पर आचार्यत्व (संस्कृत-वेद का गहन अध्ययन और साधना) लुप्त होता जा रहा है।
  • पुजारी वर्ग फिल्मी धुनों और आरतियों से भक्तों को संतुष्ट कर रहा है, पर वह ऊर्जा-परंपरा, जो संस्कृत मंत्रोच्चार से उठती थी, उसका ह्रास हो चुका है।

समाधान की दिशा

  • संस्कृत शिक्षा का पुनरुद्धार—गुरुकुल मॉडल को आधुनिक विज्ञान और तकनीक से जोड़कर।
  • मंदिर नीति—आरती समय संस्कृत मंत्र + वैदिक स्तुति अनिवार्य, लोक-भाषा भजन अलग समय।
  • अनुवाद-समन्वय—संस्कृत स्तुतियों का अर्थ साथ-साथ हिंदी/क्षेत्रीय भाषाओं में, ताकि श्रद्धा + समझ दोनों बने।
  • वेदपाठियों के लिए संरक्षण—मानदेय, छात्रवृत्ति, और डिजिटल रिपॉज़िटरी।

निष्कर्ष

संस्कृत और वेद-पाठ से दूरी केवल भाषा का सवाल नहीं है—यह हमारी ऊर्जा, साधना और चेतना से दूरी है।
आरती का गीत-रूप बुरा नहीं, पर यदि वह संस्कृत मंत्रोच्चार की जगह लेने लगे, तो हमारी आत्मा कमजोर होती है।
इतिहास ने दिखाया कि—प्राकृत, फ़ारसी और अंग्रेज़ी—हर काल में संस्कृत को पीछे धकेला गया। औपनिवेशिक नीतियों ने निर्णायक रूप से गुरुकुल परंपरा को तोड़ा। आज हमें यह समझना होगा कि यदि संस्कृत पुनः जीवन में नहीं लौटी, तो वेद की शक्ति केवल किताबों तक सीमित रह जाएगी।

“संस्कृत ही वह स्वर है, जो वेद से जुड़ता है। आरती का गीत भक्तिभाव जगाता है, पर संस्कृत ऋचा चेतना जगाती है। हमें दोनों चाहिए—पर मूल स्वर भूलकर केवल धुन में खो जाना, सनातन की आत्मा से दूरी है।”

publicfirstnews.com

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