- अब्राहमिक धर्मों से पहले पूरा मध्यपूर्व बहुदेववादी और मूर्तिपूजक था
- अब्राहम काल (लगभग 1800 ई.पू.) में एकेश्वरवाद की अवधारणा ने जन्म लिया
- सत्ता और धर्म के मिलन से मूर्तिपूजा का राजनीतिक उन्मूलन अभियान चला
- यही अभियान बाद में मूर्तिपूजकों के नरसंहार में बदल गया
- जबकि सनातन परंपरा ने इसे कभी युद्ध का विषय नहीं बनाया — उसने हमेशा सभी रूपों में ईश्वर को स्वीकारा।
प्रश्न:
यहूदी, बाइबिल और कुरान में बताए गए “खुदा / God” तब कहाँ थे जब मूर्तियाँ बन रही थीं और उनकी पूजा की जा रही थी?
अचानक एक काल विशेष में आकर मूर्तिपूजा और मूर्तिपूजकों के संहार का आदेश कैसे और किसने दिया?
प्रारंभिक पृष्ठभूमि : जब पूरा पश्चिम मूर्तिपूजक था
इतिहास साक्षी है कि यहूदी, ईसाई और इस्लामी परंपराओं से पहले का मध्यपूर्व क्षेत्र — मेसोपोटामिया, बेबीलोन, मिस्र और कनान — सब मूर्तिपूजक सभ्यताएँ थीं।
उनके देवी-देवता सूर्य, चंद्र, नदियाँ, सर्प, वायु, वर्षा आदि प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे।
यह वही काल था जब भारत में वैदिक और सनातन धर्म पहले से ही देव-पूजा, मूर्ति-आराधना और यज्ञ की परंपरा स्थापित कर चुका था।
प्रकृति और ब्रह्म के प्रतीक रूपों को मान्यता देना, उस समय के लिए सामान्य बात थी।
अब्राहमिक परिवर्तन : अब्राहम से शुरू हुआ विरोध
इतिहासकारों और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार —
अब्राहम (इब्राहीम) मूर्तिपूजक परिवार में जन्मे थे। किंतु उन्हें एक “दैवीय आदेश” प्राप्त हुआ कि केवल एक अदृश्य ईश्वर को ही मानना चाहिए।
यहीं से मोनोथीइज़्म (एकेश्वरवाद) की शुरुआत हुई।
अब्राहम के बाद यह विचार यहूदी समाज में फैला —
“मेरे सिवा दूसरा देवता न मानना, अपने लिए कोई प्रतिमा न बनाना।”
(बाइबिल, एक्ज़ोडस 20:3-4)
यानी, मूर्तिपूजा को ‘पाप’ घोषित कर दिया गया और इसे दंडनीय अपराध माना गया।
आदेश और नरसंहार : जब “एक ईश्वर” की नीति बनी हथियार
जब यह एकेश्वरवादी विचार राजनीतिक शक्ति से जुड़ा, तो उसने हिंसक रूप लिया।
• यहूदी ग्रंथों में मूर्तिपूजक जातियों के विनाश को ईश्वर की “इच्छा” बताया गया।
• ईसाई साम्राज्यों ने बाद में पैगन मंदिरों को तोड़ा और मूर्तियों को नष्ट किया।
• और इस्लाम के आगमन पर, मक्का की काबा में मौजूद 360 मूर्तियाँ तोड़ी गईं,
तथा कुरान (सूरा तौबा 9:5) में मूर्तिपूजकों के खिलाफ युद्ध का आदेश दिया गया।
इस तरह एक समय का दार्शनिक विचार, आगे चलकर मूर्तिपूजकों के सबसे बड़े नरसंहार में बदल गया।
- Ten Commandments (Exodus 20):
-“ अपने लिए कोई प्रतिमा न बनाना…” — यह नियम इज़राइल की पहचान का केंद्रीय हिस्सा माना गया।
- नीतिगत/राजनैतिक कार्यान्वयन: Hezekiah और Josiah के सुधार
- 2 Kings/2 Chronicles के हवाले से Josiah के सुधार, high places हटाने आदि का वाकया और उसका संभव राजनैतिक उद्देश्य बताएँ।
- इस्लामी परिप्रेक्ष्य: काबा की सफाई और कुरानिक संदर्भ
Conquest of Mecca, काबा से मूर्तियों का हटना (630 CE) और Qur’an की कुछ आयतों (उदा. 9:5) का संदर्भ और उनका ऐतिहासिक-व्याख्यात्मक अर्थ (contextualization)।
सनातन परंपरा का दृष्टिकोण
सनातन धर्म में “मूर्ति” को ईश्वर नहीं, बल्कि ईश्वर का प्रतीक माना गया है।
यह ध्यान (ध्यानयोग) और भावना (भक्तियोग) के लिए एक केंद्र बिंदु है —
ईश्वर की अनंत चेतना को रूप में अनुभव करने का साधन।
इसलिए यहाँ मूर्तिपूजा भ्रम नहीं, बल्कि ध्यान का माध्यम है।
और यही कारण है कि भारत की परंपरा में “निर्गुण” (अव्यक्त) और “सगुण” (रूपवान) — दोनों स्वीकार्य हैं।
Disclaimer (अस्वीकरण)
इस लेख का उद्देश्य किसी धर्म, संप्रदाय, या आस्था विशेष की आलोचना करना नहीं है।
प्रस्तुत विश्लेषण केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से “ईर्ष्यालु ईश्वर” (I AM THE JEALOUS GOD) वाक्य के गूढ़ तात्त्विक अर्थ को समझाने का प्रयास है।
इसमें उद्धृत ग्रंथ, शास्त्र और उदाहरण तुलनात्मक अध्ययन के संदर्भ में प्रयोग किए गए हैं, न कि किसी धर्म या ग्रंथ के विरोध में।
लेख का मूल उद्देश्य है —
“सृष्टि, चेतना और परम तत्व के विभिन्न व्याख्यानों के मध्य छिपे आध्यात्मिक भेद को समझना।”
पाठकों से निवेदन है कि इसे आस्था के प्रति सम्मानपूर्वक, तात्त्विक विवेक के साथ पढ़ें।
प्रत्येक धर्म का मूल सार प्रेम, सत्य और करुणा है — यही सनातन संदेश इस लेख का भी केन्द्र है।
सत्य शिव है — ईर्ष्या नहीं।
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