पब्लिक फर्स्ट।
देसी लड़ाकू विमान तेजस का नाम तो आपने सुना ही होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि स्वदेशी तेजस का दिल यानी इंजन अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक GE ने बनाया है।
अमेरिका में मौजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी कंपनी से ‘तेजस मार्क-2’ के लिए 200 से ज्यादा इंजन भारत में ही बनाने का समझौता करने जा रहे हैं। मार्क-2 तेजस का एडवांस मॉडल है और इसमें GE-F414 इंजन लगना है।
अब सवाल ये है कि अंतरिक्ष में बड़े-बड़े रॉकेट भेजने वाला भारत एक लड़ाकू विमान का इंजन नहीं बना पाता… आखिर क्यों? आज के एक्सप्लेनर में यही समझते हैं। शुरुआत एक किस्से से…
बात 50 के दशक की है। वायुसेना को नए लड़ाकू विमान चाहिए थे। गुटनिरपेक्ष के जनक जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि हम सोवियत रूस या अमेरिका के बजाय अपने ही लड़ाकू विमान बनाएं।
सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी HAL तब विमान का ढांचा तो बना लेती थी, लेकिन इंजन उसके बूते से बाहर था।
तमाम कोशिशों के बाद भी जब बात नहीं बनी तो नेहरू सरकार ने हिटलर वाले जर्मनी के दौर में लड़ाकू विमान डिजाइन करने वाले जर्मन इंजीनियर कुर्त टैंक से संपर्क साधा।
दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद ऐसे तमाम जर्मन साइंटिस्ट और इंजीनियर लैटिन अमेरिकी देशों खासकर अर्जेंटीना भाग गए थे। 1956 में भारत में कुर्त टैंक ने HAL के साथ मिलकर लड़ाकू विमान का इंजन बनाना शुरू किया।
साल 1961 में इस इंजन से उड़ने वाले HF-24 मारुत लड़ाकू विमान का ट्रायल हुआ। 1967 में इसे वायुसेना को सौंपा गया। विमान को आवाज से ज्यादा की स्पीड पर उड़ना था, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं।
हालांकि 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान लोंगेवाला की लड़ाई में HF-24 मारुत ने पाकिस्तान के कई टैंकों को तबाह कर दिया था। कमजोर इंजन होने की वजह से ही 1982 में वायुसेना ने इसे अपने बेड़े से हटाना शुरू कर दिया।
इसके बाद दिसंबर 1986 बेंगलुरु में गैस टर्बाइन रिसर्च एस्टैब्लिशमेंट यानी GTRE ने मल्टी-रोल लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट यानी LCA के लिए स्वदेशी कावेरी इंजन बनाना शुरू किया।
13 साल बाद GTRE ने 9 प्रोटोटाइप कावेरी इंजनों के साथ-साथ 4 कोर इंजन बनाए। भारत के साथ ही रूस में 3217 घंटे की टेस्टिंग की गई, लेकिन ये इंजन लड़ाकू विमान को पावर देने के जरूरी पैरामीटर पर खरे नहीं उतरे। यानी हम आजादी के बाद से अब तक लड़ाकू विमान का इंजन नहीं बना पाए।
जनरल इलेक्ट्रिक के साथ भारत की डील इतनी अहम क्यों है?
जानकार बताते हैं कि अमेरिका इस डील के माध्यम से भारत की रूस पर सैन्य निर्भरता को प्रतिबंधित करना चाहता है। अभी भारत आधे से ज्यादा की मिलिट्री सप्लाई के लिए रूस पर निर्भर है।
भारत दशकों से लड़ाकू विमान से लेकर टैंक, परमाणु पनडुब्बी और विमानवाहक पोत रूस से खरीदता आ रहा है। भारत के 70 से 85% सैन्य साजोसामान रूसी हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस डील को एशिया में चीन के डॉमिनेंस यानी उभार के काउंटर बैलेंस के रूप में भी देखा जा रहा है। अमेरिका के पूर्व नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर यानी NSA डेनियल सिल्वरबर्ग कहते हैं कि अमेरिकी प्रशासन का ऑब्जेक्टिव साफ है। वह भारतीय मिलिट्री को चीन विरोधी स्ट्रैटजी के लिए मजबूत करना चाहता है।
अमेरिकी थिंक टैंक सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के रिचर्ड रोसो भी इसी तरह की राय रखते हैं। उन्होंने कहा कि भारत एकमात्र देश है जो वास्तव में चीन के साथ लड़ रहा है। ऐसे में अमेरिका के लिए भारत सबसे अहम साबित हो सकता है।
यही वजह है कि जिस तकनीक को अमेरिका ने NATO देशों के साथ भी साझा नहीं किया है उसे अब भारत के साथ साझा करने जा रहा है।
क्या अमेरिका के अलावा भी भारत दूसरे देशों के साथ इस तरह के इंजन बनाने की डील कर रहा है?
हां। जनरल इलेक्ट्रिक के अलावा भारत यूरोजेट EJ200 और क्लिमोव RD-33 जैसे अन्य इंजनों की डील पर भी बातचीत कर रहा है।
हालांकि F414 को इसलिए चुना गया क्योंकि GE ने परफॉर्मेंस, रिलायबिलिटी, कॉस्ट और टेक्नोलॉजी के ट्रांसफर के लिहाज से सबसे बेहतर डील पेश की है।
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