पब्लिक फर्स्ट। आशुतोष ।
लेखक पब्लिक फर्स्ट के एडिटर इन चीफ है।
बेरोज़गारी बेरोज़गारी बेरोज़गारी । अंग्रेजो के भारत छोड़ने के कुछ दशक बाद से ही ये शब्द, उबरने लगा था और ये समस्या धीरे धीरे इस कदर विकराल रुप लेती गई कि, ये एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। हर सियासी दल युवाओ को रोज़गार देने के नाम पर और बेरोज़गारी दूर करने का नारा देकर, सत्ता हासिल कर, खुद अपनी बेरोज़गारी और ग़रीबी तो दूर करता गया लेकिन, भारत का युवा रोज़गार के लिये तरसता रहा।
अब ये बेरोज़गारी रुपी हथियार, जो भी दल सत्ता में होता है उसके खिलाफ धारदार होता चला जाता है। लेकिन बड़ा सवाल ये कि आखिर बेरोज़गारी है क्या और इस समस्या की जड़ क्या है ?
बेरोज़गारी के षढयंत्र को समझिये
भारत पर राज करने के लिये सबसे पहले इस्लामिक आक्रांताओं ने हमारे पुस्तकालय जलाये और मंदिर तोड़े। यानि ज्ञान के स्त्रोत को ही पूरी तरह तहस नहस कर दिया। अब भारत वासियों को जो बता दिया गया उसे ही वो सही मानने लग गये। चाहे मंदिर तोड़कर मस्जिद बना दी गई हो या फिर प्राचीन नगर को जलाकर उसका नाम बदल दिया गया हो। जब इतिहास ही मिटा दिया जायेगा तो फिर आने वाली पीढ़ी कैसे उसे फिर से हासिल करने की कोशिश करेगी ।
चालाक अंग्रेजो ने भी भारत की शिक्षा व्यवस्था के इसी बुरे दौर का भरपूर फायदा उठाया। अंग्रेजो ने अपने फायदे के लिये कानून बनाये और ईसाईयत का प्रचार करने के उद्देश्य से शिक्षा और स्वास्थ्य के ऐसे सिस्टम तैयार किये जिसमे पड़ने वाला हर भारतीय, सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ो के आश्रित होता जाये। वो अपना स्वाभिमान भूल जाये और आत्मसम्मान भी।
- आज़ादी के बाद भी, केंद्र की कांग्रेस सरकारो ने अंग्रेजो की इसी नीति को ही लागू रखा और सक्षम युवा बनाने के बजाय भारत में तैयार होने लगे, शिक्षित बेरोज़गार। एक ऐसा बड़ा वर्ग जिसकी डिग्री के नाम तो बड़े अंग्रेजीनुमा होते है जिसे लेकर शुरुआती दौर में तो उसे सरकारी नौकरी दी गई जिससे की अंग्रेजो के जाने के बाद, अंग्रेजो की ही शिक्षा व्यवस्था को लागू रहने देने का तर्क दिया जा सके। लेकिन उसके बाद शुरु हुआ असली खेला।
शिक्षा को बना दिया धंधा
- धीरे धीरे हमारे धूर्त राजनेताओं ने शिक्षा को एक धंधा बना दिया। हर शहर और कस्बों में बिना किसी समुचित व्यवस्था के कुकुरमुत्तो की तरह, स्कूल और कॉलेज खुलते गये। इस स्कूल कॉलेजो ने सरकारी शिक्षण तंत्र को पूरी तरह तहस नहस कर दिया और मोटी फीस वसूलने का धंधा शुरु कर दिया । इन स्कूल कॉलेजो में ज्यादातर पैसा और वरद हस्त, इन धूर्त अंग्रेज परस्त राजनेताओं का ही लगा था। इन शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत से अलावा किसी और बिंदू पर फोकस ही नही किया गया। यानि आपको अंग्रेजी आती है तो होशियार और अगर नही आती तो आप गंवार।
- छात्रों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय रट्टू तोता बना दिया गया।
नकल माफिया और शिक्षा माफिया का पनपना
- सिर्फ नंबर हासिल करने के लिये, नकल माफिया से लेकर राजनीतिक रसूख का भी इस्तेमाल किया जाने लगा।
- डिग्री अच्छे नंबरों में हासिल करवाने के लिये छात्र नेताओं की फसल तैयार होने लगी जिनका इस्तेमाल एक बार फिर हमारे धूर्त राजनेता अपने राजनीतिक फायदे के लिये करने लगे।
बॉलिवुड का काम बरगलाना
भारत को फिर से गुलाम बनाने के इस षडयंत्र में, फिल्मों और गानो का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया और कभी भी समस्या की जड़ यानि शिक्षा व्यवस्था को दोषी ना ठहरा कर भारतीय लोकतंत्र और देश के खिलाफ ही युवाओं के आक्रोश को भड़काया गया। इसकी परिणति हमने, कई हिंसक छात्र आंदोलन के तौर पर भी देखी।
सरकारी नौकरी मतलब ही रोज़गार ??
धीरे धीरे डिग्रीधारी युवाओं की भीड़ जमा होती गई और कोई भी ये ना सोचकर की आखिर जब इन डिग्री को पाने के बाद भी नौकरी मिलने की कोई गारंटी नही तो फिर इस तरह की डिग्री और पढ़ाई में पैसे क्यों बर्बाद करवाये जा रहे है।
गांवो से पलायन – कृषि अर्थव्यवस्था चौपट
ग्रेज्युएट शब्द को अपने नाम के साथ लगाने की भेड़ चाल और मृगतृष्णा में, गांव में खेतो में काम करने वाले लाखो युवा शहरो की ओर रुख करते गये और हमारी ग्रामीण कृषि व्यवस्था लचर होती गई।
शहरों में इन्ही बेरोज़गार युवाओं का इस्तेमाल, ये अंग्रेज परस्त नेता, अपराधिक वारदातों को अंजाम देने में करने लग गये।
भारत के साथ कर रहे बड़ा षडयंत्र
अब आप समझे, जिस डिग्री को हासिल कर आप नौकरी पाने की आस लगाते है वो सिर्फ एक छलावा है। भारत की पुरातन शिक्षा व्यवस्था में, युवा योग्य और राष्ट्रभक्त बनता था। वो ना केवल समाज को सुधारता था बल्कि अपने साथ के युवाओ को भी स्वरोज़गार और परिश्रम के लिये प्रेरित करता था।
लेकिन अंग्रेजो के लॉर्ड मैकाले के षडयंत्र ने भारत के युवाओं को बनाया तो सिर्फ और सिर्फ पंगू ।
- आज बड़ी बड़ी डिग्री लेकर साधारण सी नौकरी पाने के लिये, युवा जद्दोजहद करता नज़र आता है। लेकिन तब भी कोई ये नही सोचता कि आखिर समस्या कहां है – क्या संसार में कोई भी देश, युवाओं की आबादी के अनुसार उन्हे सरकारी नौकरी दे सकता है ?
फटाफट पैसा उगाने का मायाजाल
- अब भी वक्त है । इस षडयंत्र को समझिये। अंग्रेजी मानसिकता का त्याग कर, स्वरोज़गार और क्षमता अनुसार परिश्रम में जुटिये।
- हमारे देश में गांव गांव में विकास के कई अवसर है लेकिन, युवाओं को भोगवादी मायाजाल में फंसाकर और महंगे शौक टीवी, फिल्मों के माध्यम से दिखाकर, जल्द पैसा कमाने की ऐसी अंधी दौड़ में धकेल दिया गया है कि वो, अपने आसपास सिर्फ अपने जैसे ही युवा को दौड़ता हुआ पाता है और कही इस रेस में वो पीछे ना रह जाये, इस डर से, वो घोड़े की तरह दौड़ता चला जाता है, उस मुकाम की ओर, जहां ना तो उसके लिये कोई भविष्य है और ना ही ज्ञान और फिर वो इस भंवर में फंसकर घबराकर -चिल्लाते हुए ये ही कहता है – बेरोज़गारी दूर करो – हमारी मांगे पूरी करो। publicfirstnews.com