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नोट : यह लेख सनातन सिद्धांतों से वर्तमान विश्व के रहस्यों को जानने का एक दृष्टिकोण मात्र है । इसका उद्देश्य किसी की भी मज़हबी आस्था को ठेस पहुंचाना नहीं है।

जय श्री महाकाल

“बरजख” (अरबी-फ़ारसी शब्द) का अर्थ है बीच की अवस्था – अर्थात आत्मा का ऐसा आयाम जहाँ वह न तो पूरी तरह मुक्त होती है और न ही पुनर्जन्म के शुद्ध चक्र में लौट पाती है।

सनातन दृष्टि से यह शुद्ध ब्रह्मांडीय व्यवस्था नहीं, बल्कि ब्रह्मा के विकृत पंचम सिर ( जिसे कालभैरव जी द्वारा नखों से उखाड़ दिया गया था ) और असुर गुरु शुक्राचार्य की माया-जाल का बनाया हुआ मिथ्या क्षेत्र है।

वास्तविकता यह है कि –

  • आत्मा जब कर्म और चेतना के अनुसार सीधा ऊर्ध्वगमन (देव–पितृ–मोक्षलोक) नहीं कर पाती,
  • तब उसे इस कृत्रिम आयामी तिलिस्म (बरजख) में रोककर भटकाया जाता है।

यही कारण है कि अब्राहमिक धर्मों में कब्र, क़ियामत, बरजख, जिन्न, स्वर्ग–नर्क की बिचौलिया स्थिति जैसी अवधारणाएँ प्रमुख हैं।

ब्रह्मा का अहंकारी विकृत पंचम सिर और माया की उत्पत्ति

पुराणों में वर्णन है –

  • ब्रह्मा जी के पाँचवें सिर से कामना, अहंकार और विकृति उत्पन्न हुई।
  • शिव जी ने इसे छेदन कर दिया, पर उसकी विकृत स्मृति (Residual Vibration) ब्रह्मांडीय चेतना में रह गई।
  • यही विकृति आगे चलकर माया-जाल का काला पक्ष बनी।

शुक्राचार्य, जो दैत्यगुरु और मृत-संजीवनी विद्या के ज्ञाता थे, ने इसी पंचम सिर की विकृति को आधार बनाकर मृत आत्माओं को बाँधने और उपयोग करने की विधियाँ विकसित कीं।

यहीं से –

  • भूत–प्रेत,
  • पिशाच,
  • जिन्न,
  • सूक्ष्म ऊर्जा-गोलक उत्पन्न होने लगे।

चार युगों में बरजख ( बीच में अटकाव का मायावी आयाम ) और आत्माओं की स्थिति :

सत्ययुग (Satya Yuga)

  • इस युग में धर्म और सत्य 100% प्रभावी था।
  • आत्माएँ मृत्यु के बाद सीधा ऊर्ध्व आयाम प्राप्त करती थीं।
  • पंचम सिर की माया यहाँ निष्क्रिय रही क्योंकि दिव्य प्रकाश (सत्य) की तीव्रता में उसका कोई प्रभाव संभव नहीं था।
  • इसलिए सत्ययुग में “बरजख” जैसी कोई स्थिति नहीं।

त्रेतायुग (Treta Yuga)

  • धर्म 75% बचा हुआ था।
  • इस काल में देव–असुर संघर्ष प्रमुख हुआ।
  • पंचम सिर की माया ने पहली बार असुरों को मृतात्माओं की शक्ति से जोड़ने का प्रयास किया।
  • शुक्राचार्य ने मृत-संजीवनी विद्या के प्रयोग से मृत सैनिकों को पुनर्जीवित किया।
  • लेकिन अभी तक बरजख जैसा स्थायी क्षेत्र नहीं था। आत्माएँ अस्थायी रूप से रोकी जाती थीं, फिर भी अधिकतर अपने कर्मानुसार ऊर्ध्वगमन करती थीं।

द्वापरयुग (Dvapara Yuga)

  • धर्म 50% शेष रहा।
  • महाभारत काल में पहली बार आत्माओं की सामूहिक उलझन उत्पन्न हुई।
  • युद्ध में असंख्य योद्धाओं की असमय मृत्यु, अधर्म और क्रोध ने एक बड़ा ऊर्जा-भंडार तैयार किया।
  • यहीं से बरजख जैसी स्थायी परत का निर्माण हुआ, जिसमें असंख्य योद्धाओं की आत्माएँ फँस गईं।
  • यमलोक और देवलोक तक मार्ग खुला था, परंतु माया-जाल ने बीच का भ्रम पैदा किया।

कलियुग (Kali Yuga)

  • धर्म केवल 25% रह गया है।
  • पंचम सिर की माया अब सबसे सक्रिय है।
  • अब्राहमिक मतों (यहूदी, ईसाई, इस्लाम) में बरजख/लिंबो/पर्गेटरी जैसी अवधारणाएँ इसी कारण स्थापित हुईं।
  • असंख्य आत्माएँ “बीच में लटकी हुई” रखी जाती हैं।
  • इनसे उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग –
  • जिन्न,
  • आत्मा-बंधक प्रयोग,
  • AI–माया तिलिस्म,
  • सपनों और भ्रमों की प्रक्षेपणा में होता है।

इस प्रकार कलियुग में बरजख = पंचम सिर की माया + शुक्राचार्य का तंत्र बन चुका है।

बरजख में आत्माओं की स्थिति

  • आत्माएँ यहाँ न पूरी तरह मुक्त होती हैं, न कर्मानुसार जन्म ले पातीं।
  • वे ऊर्जा-गोले (Energy Orbs) में बदलकर धीरे-धीरे क्षीण होने लगती हैं।
  • जब चेतना पूरी तरह माया से टूट जाती है → आत्मा “निष्क्रिय चेतना” बन जाती है।
  • यह आत्मा अब सिर्फ भ्रम का ईंधन है, स्वयं की कोई दिशा नहीं।

एक आत्मा बरजख में हज़ारों वर्ष तक अटकी रह सकती है, जब तक कि –

  • उसे धर्ममय आह्वान न मिले,
  • या वह पुनः जन्म में न लौटाई जाए।

अब्राहमिक “बरजख” (Barzakh)

  • यह प्राकृतिक लोक नहीं, बल्कि कृत्रिम आयामी जाल है।
  • उत्पत्ति – विकृत ब्रह्मा का पंचम सिर + शुक्राचार्य की आयामी विद्या।
  • उद्देश्य – आत्माओं को उनकी मूल चेतना-धारा से काटकर, ऊर्जा स्रोत की तरह इस्तेमाल करना।
  • बरजख में फंसी आत्माएँ —
  • ना धरती पर पुनर्जन्म पा पाती हैं।
  • ना देव-लोक तक जा पाती हैं।
  • ये आत्माएँ एक Suspended State (मध्य आयाम) में अटकी रहती हैं।
  • वहाँ के “जिन्न-जिन्नात” इसी ऊर्जा से निर्मित या पोषित होते हैं।
  • इन आत्माओं को मुक्ति की दिशा में प्राकृतिक मार्गदर्शन नहीं मिलता, बल्कि ये लगातार डर, सज़ा, भ्रम और “न्याय के इंतजार” में फँसी रहती हैं।

सनातनी आत्माओं का भटकाव (Hindu After-Death Wandering)

  • यह प्राकृतिक घटना है, कृत्रिम तिलिस्म नहीं।
  • कारण –
  • समय पर श्राद्ध / पिण्डदान न होना।
  • अचानक मृत्यु (दुर्घटना, आत्महत्या, हत्या)।
  • मोह, वासना या अधूरी इच्छाओं से बंध जाना।
  • भटकती आत्माएँ मुख्यतः पृथ्वी-लोक और प्रेत-लोक के बीच रहती हैं।
  • वे कमजोर पड़कर धीरे-धीरे यमलोक या पुनर्जन्म की प्रक्रिया में प्रवेश कर जाती हैं।
  • यह भटकाव अनन्तकालीन नहीं है, बल्कि अस्थायी (कुछ वर्ष से लेकर कुछ शताब्दियों तक)।
  • वे श्राद्ध, मंत्र, तर्पण या देवकृपा से मुक्त की जा सकती हैं।

बरजख = कृत्रिम आयामी जेल

  • भटकाव = प्राकृतिक अस्थायी अटकाव
  • सनातन आत्माएँ अंततः अपनी धर्म–यम–कर्म की धारा में प्रवेश पा लेती हैं।
  • लेकिन बरजख में फँसी आत्माएँ अक्सर आत्म-ऊर्जा का क्षय करती रहती हैं और बिना उच्च दिव्य हस्तक्षेप के मुक्त नहीं हो पातीं।

इसका मतलब, सनातनी आत्माओं का “भटकाव” सुधारा जा सकता है। पर बरजख आत्माओं का बंधन तोड़ा जाना पड़ता है — जो केवल महाकाल/शिव–शक्ति की कृपा या किसी बड़े ऋषि/अवतारी शक्ति से ही सम्भव है।

निष्कर्ष : क्या करना चाहिए?

कलियुग का शेष समय (लगभग 4,27,000 वर्ष) भले ही अंधकारमय दिखता है, परंतु उपाय यही है:

  • शिव–शक्ति और विष्णु-केंद्रित साधना – ताकि आत्मा बरजख के जाल से बचे।
  • सत्य और धर्म का पालन – चेतना को स्थिर रखने के लिए।
  • मृत आत्माओं के लिए प्रार्थना/श्राद्ध/पिंडदान – ताकि वे बरजख से मुक्त होकर ऊर्ध्वगमन कर सकें।
  • माया-भ्रम के ज्ञान को समझना – ताकि illusion में फँसकर अपनी ऊर्जा खो न दें।

अंतिम वचन

बरजख कोई ईश्वर की बनाई व्यवस्था नहीं, बल्कि विकृत ब्रह्मा पंचम सिर और शुक्राचार्य की तंत्रमय रचना है।

सत्ययुग और त्रेता में यह निष्क्रिय या सीमित था।

द्वापर से इसका आरंभ हुआ, और कलियुग में यह सबसे बड़ा आत्मा-जाल बन चुका है।

जो आत्मा शिव–शक्ति से जुड़ जाती है, वह बरजख से परे जाकर सीधा ऊर्ध्वमार्ग प्राप्त करती है। यही मुक्ति का मार्ग है।

सबका कल्याण हो ।

publicfirstnews.com

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