जिसे दुनिया को साइंस ( विज्ञान ) बताया गया वो दरअसल ईसाईयों का ज्ञान है जिसे सिर्फ ईसाई वैज्ञानिकों को मापदंड और मानदंड पर ही मापा जा सकता है ।
ये किसी और ज्ञान को नहीं मानते बल्कि उसे myth कहकर उपहास बनाते है ।
⁠और इसी ईसाई वि’ज्ञान’ का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये किया गया और अब भी किया जा रहा है ।
⁠जबकि सनातन वैदिक धर्म के ग्रंथों में सृष्टि के समस्त ज्ञान को सहजता से बताया और समझाया गया है ।
⁠इसे सनातन ज्ञान से डरकर कट्टरपंथियों ने हमारे पुस्तकालय / मंदिर और विश्वविद्यालयों को तहस नहस कर दिया जिससे वो जो भी हम पर थोंपे वो हमें मानना पड़े ।

ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ

ईसाई धर्म की केन्द्रीय मान्यताएँ (जैसे सृष्टि की उत्पत्ति) विज्ञान के कई निष्कर्षों से टकराती थीं, इसलिए चर्च ने अक्सर वैज्ञानिक खोजों का विरोध किया।

अब्राहमिक पंथों की वैज्ञानिक समीक्षा में कमी क्यों?


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•   दरअसल स्वयं पश्चिमी  वैज्ञानिकों की कसौटी पर अब्राहमिक पंथों ( यहूदी , ईसाई , इस्लाम ) की मान्यताएं और विवरण मेल नहीं खाती थीं जिसकी वजह से पश्चिमी पंथों के गुरुओं को अपनी सत्ता पर ये बड़ा संकट लगता था । ईसाई धार्मिक सत्ता और विज्ञान के बीच शक्ति और प्रभाव का संघर्ष था । 

•   चर्च की केंद्रीय भूमिका के कारण, ईसाई ग्रंथों और सिद्धांतों की वैज्ञानिक समीक्षा को दबाया गया या नजरअंदाज किया गया, जबकि अन्य धर्मों (जैसे सनातन) की मान्यताओं को “परीक्षण” के नाम पर आलोचना का शिकार बनाया गया।

•   पश्चिमी वैज्ञानिकों ने अपने समाज की धार्मिक मान्यताओं को अक्सर “सत्य” या “आधारभूत” मान लिया, जबकि भारतीय या अन्य गैर-पश्चिमी परंपराओं को “परीक्षण योग्य” या “अविश्वसनीय” समझा।

पश्चिमी विज्ञान और धर्मांतरण का संबंध
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•   औपनिवेशिक मिशनरियों और पश्चिमी विद्वानों ने विज्ञान को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया ताकि भारतीय समाज को “अंधविश्वासी” या “अवैज्ञानिक” दिखाकर ईसाई धर्म की श्रेष्ठता स्थापित की जा सके, जिससे धर्मांतरण को वैधता मिले।

•   पश्चिमी दृष्टिकोण में, विज्ञान और ईसाई धर्म को “सहज” या “संगत” दिखाने की कोशिश होती रही, ताकि वैज्ञानिक विकास का श्रेय ईसाई सभ्यता को दिया जा सके और धर्मांतरण के लिए प्रेरित किया जा सके।

निष्कर्ष
• पश्चिमी ईसाई वैज्ञानिकों ने अपने धर्म की वैज्ञानिक समीक्षा से बचने और सनातन धर्म को “परीक्षण” के नाम पर नीचा दिखाने का कार्य औपनिवेशिक, सामाजिक और वैचारिक कारणों से किया। इसका उद्देश्य सत्ता, धर्मांतरण और सांस्कृतिक प्रभुत्व बनाए रखना था

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