HIGHLIGHTS FIRST

अश्वगंधा को “Indian Ginseng” कहकर बेचना, या त्रिफला को “Herbal Detox Formula” के नाम से बेचना।
⁠अरबियों ने भी भारतीय चिकित्सा ग्रंथों का अनुवाद किया (जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता) और उसे अपनी यूनानी चिकित्सा में शामिल किया

भारतीय वैदिक आयुर्वेद का ज्ञान हजारों वर्षों पुराना है, लेकिन औपनिवेशिक काल और उसके बाद पश्चिमी देशों ने इस ज्ञान को कई बार अपने नाम से प्रस्तुत किया या उसमें से महत्वपूर्ण हिस्से लेकर उसे “नई खोज” के रूप में प्रचारित किया। इसके प्रमुख उदाहरण और तरीके निम्नलिखित हैं:

अनुवाद और पुनर्प्रस्तुति (Translation & Rebranding)


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•   ब्रिटिश और यूरोपीय विद्वानों ने आयुर्वेदिक ग्रंथों का अनुवाद किया और उसमें से कई अवधारणाएँ अपने चिकित्सा ग्रंथों में शामिल कीं।
•   कई बार आयुर्वेदिक औषधियों और उपचारों को नए नामों से प्रकाशित किया गया, जिससे मूल स्रोत का उल्लेख नहीं किया गया।

पेटेंट और बौद्धिक संपदा अधिकार (Patent & IPR)


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•   पश्चिमी कंपनियों ने हल्दी, नीम, त्रिफला, अश्वगंधा जैसी औषधियों के गुणों पर पेटेंट के लिए आवेदन किए।
•   उदाहरण: हल्दी के घाव भरने के गुण पर अमेरिका में पेटेंट फाइल किया गया, जबकि भारत में यह हज़ारों साल से जाना जाता था।
•   नीम के कीटनाशक गुणों पर भी पेटेंट के प्रयास हुए।

वैज्ञानिक भाषा और आधुनिक पैकेजिंग


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•   आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों और उपचारों को वैज्ञानिक शब्दावली और आधुनिक पैकेजिंग में पेश किया गया।
•   जैसे अश्वगंधा को “Indian Ginseng” कहकर बेचना, या त्रिफला को “Herbal Detox Formula” के नाम से बेचना।
•   योग और प्राचीन भारतीय उपचार पद्धतियों को “Alternative Medicine” या “Holistic Healing” के नाम से प्रस्तुत किया गया।

शोध पत्र और मेडिकल जर्नल्स में श्रेय न देना


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•   पश्चिमी शोधकर्ताओं ने आयुर्वेदिक औषधियों पर रिसर्च की, लेकिन मूल भारतीय स्रोत का उल्लेख नहीं किया।
•   इससे वैश्विक स्तर पर यह भ्रम फैल गया कि यह खोज पश्चिम की है।

अरब और यूनानी चिकित्सा में समावेश


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•   प्राचीन काल में अरब विद्वानों ने भी भारतीय चिकित्सा ग्रंथों का अनुवाद किया (जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता) और उसे अपनी यूनानी चिकित्सा में शामिल किया।

ज्ञान का स्थानांतरण:

प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र जैसे नालंदा विश्वविद्यालय में आयुर्वेद, गणित, खगोल विज्ञान आदि की गहरी पढ़ाई होती थी। यहां के छात्र और विद्वान, अरब देशों सहित अन्य जगहों पर गए और वहां भारतीय ज्ञान का प्रसार किया।

•   अरबी अनुवाद:

भारतीय चिकित्सा ग्रंथों (जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता) का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ। अरब विद्वानों ने इन ग्रंथों को पढ़कर अपनी यूनानी-तिब्बी चिकित्सा प्रणाली में शामिल किया और बाद में उसे अपने नाम से प्रचारित किया।

•   प्रभाव और लेबलिंग:

भारतीय आयुर्वेदिक सिद्धांतों और औषधियों को अरब चिकित्सा ग्रंथों में समाहित किया गया, जिससे बाद में यह पश्चिमी दुनिया में यूनानी मेडिसिन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे भारतीय मूल का उल्लेख धीरे-धीरे कम होता गया और अरब विद्वानों को श्रेय मिलने लगा।

•   बाद में यह ज्ञान यूरोप पहुँचा और वहाँ के चिकित्सा विज्ञान का हिस्सा बना।

निष्कर्ष :

पश्चिमी देशों ने भारतीय वैदिक आयुर्वेद के ज्ञान को कई बार अपने नाम से पेश किया, उसका पेटेंट कराया, या उसे “नई खोज” के रूप में प्रचारित किया। इससे न सिर्फ भारत के पारंपरिक ज्ञान को श्रेय नहीं मिला, बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भी नुकसान हुआ। आज भारत ने TKDL (Traditional Knowledge Digital Library) जैसी पहल से अपने पारंपरिक ज्ञान की रक्षा के प्रयास तेज कर दिए हैं।

publicfirstnews.com

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